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Friday, September 11, 2009

arjuna,अर्जुन

Plant of arjuana /अर्जुन
Common name of this herb is Arjuna, Scientific name is Terminalia arjuna, तेर्मिनालिया अर्जुनimproves blood circulation & improves cardiac health.

Terminalia arjuna is a medicinal plant of the genus Terminalia, widely used by Ayurveda physicians for its curative properties in organic/functional heart problems including angina, hypertension and deposits in arteries. According to Ayurvedic texts it also very useful in the treatment of any sort of pain due a fall, ecchymosis, spermatorrhoea and sexually transmitted diseases such as gonorrhoea. Arjuna bark (Terminallia arjuna) is thought to be beneficial for the heart. This has also been proved in a research by Dr. K. N. Udupa in Banaras Hindu University's Institute of Medical Sciences , Varanasi (India). In this research, they found that powdered extract of the above drug provided very good results to the people suffering from Coronary heart diseases.

Research suggests that Terminalia is useful in alleviating the pain of angina pectoris and in treating heart failure and coronary artery disease. Terminalia may also be useful in treating hypercholesterolemia. The cardioprotective effects of terminalia are thought to be caused by the antioxidant nature of several of the constituent flavonoids and oligomeric proanthocyanidins, while positive inotropic effects may be caused by the saponin glycosides.

The leaves of this tree are also fed on by the Antheraea paphia moth which produces the tassar silk (Tussah), a form of wild silk of commercial importance.



इसे घवल, ककुभ तथा नदीसर्ज (नदी नालों के किनारे होने के कारण) भी कहते हैं कहुआ तथा सादड़ी नाम से बोलचाल की भाषा में प्रख्यात यह वृक्ष एक बड़ा सदाहरित पेड़ है लगभग 60 से 80 फीट ऊँचा होता है तथा हिमालय की तराई, शुष्क पहाड़ी क्षेत्रों में नालों के किनारे तथा बिहार, मध्य प्रदेश में काफी पाया जाता है

वानस्पतिक परिचय-
इसकी छाल पेड़ से उतार लेने पर फिर उग आती है छाल का ही प्रयोग होता है अतः उगने के लिए कम से कम दो वर्षा ऋतुएँ चाहिए एक वृक्ष में छाल तीन साल के चक्र में मिलती हैं छाल बाहर से सफेद, अन्दर से चिकनी, मोटी तथा हल्के गुलाबी रंग की होती है लगभग 4 मिलीमीटर मोटी यह छाल वर्ष में एक बार स्वयंमेव निकलकर नीचे गिर पड़ती है स्वाद कसैला, तीखा होता है तथा गोदने पर वृक्ष से एक प्रकार का दूध निकलता है

पत्ते अमरुद के पत्तों जैसे 7 से 20 सेण्टीमीटर लंबे आयताकार होते हैं या कहीं-कहीं नुकीले होते हैं किनारे सरल तथा कहीं-कहीं सूक्ष्म दाँतों वाले होते हैं वे वसंत में नए आते हैं तथा छोटी-छोटी टहनियों पर लगे होते हैं ऊपरी भाग चिकना निचला रुक्ष तथा शिरायुक्त होता है फल वसंत में ही आते हैं, सफेद या पीले मंजरियों में लगे होते हैं इनमें हल्की सी सुगंध भी होती है फल लंबे अण्डाकार 5 या 7 धारियों वाले जेठ से श्रावण मास के बीच लगते हैं शीतकाल में पकते हैं 2 से 5 सेण्टी मीटर लंबे ये फल कच्ची अवस्था में हरे-पीले तथा पकने पर भूरे-लाल रंग के हो जाते हैं फलों की गंध अरुचिकर स्वाद कसौला होता है फल ही अर्जुन का बीज है अर्जुन वृक्ष का गोंद स्वच्छ सुनहरा, भूरा पारदर्शक होता है

शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
अर्जुन जाति के कम से कम पन्द्रह प्रकार के वृक्ष भारत में पाए जाते हैं इसी कारण कौन सी औषधि हृदय रक्त संस्थान पर कार्य करती है, यह पहचान करना बहुत जरूरी है 'ड्रग्स ऑफ हिन्दुस्तान' के विद्वान लेखक डॉ. घोष के अनुसार आधुनिक वैज्ञानिक अर्जुन के रक्तवाही संस्थान पर प्रभाव को बना सकने में असमर्थ इस कारण रहे हैं कि इनमें आकृति में सदृश सजातियों की मिलावट बहुत होती है छाल एक सी दीखने परभी उनके रासायनिक गुण भैषजीय प्रभाव सर्वथा भिन्न है
सही अर्जुन की छाल अन्य पेड़ों की तुलना में कहीं अधिक मोटी तथा नरम होती है शाखा रहित यह छाल अंदर से रक्त सा रंग लिए होती है पेड़ पर से छाल चिकनी चादर के रूप में उतर आती है क्योंकि पेड़ का तना बहुत चौड़ा होता है

संग्रह-
अर्जुन की छाल को सुखाकर सूखे शीतल स्थान में चूर्ण रूप में बंद रखा जाता है

कालावधि-
इसकी प्रभावी सामर्थ्य 2 वर्ष होती है

गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
प्राचीन आयुर्वेद शास्रियों में वाग्भट्ट एक ऐसे वैद्य हैं, जिन्होंने पहली बार इस औषधि के हृदय रोग में उपयोगी होने की विवेचना की उनके बाद चक्रदत्त भाव मिश्र ने भी इसे हृदय रोगों की महौषधि माना चक्रदत्त का कहना है कि घी, दूध या गुड़ के साथ जो अर्जुन की त्वचा का चूर्ण नियमित रूप से लेता है, उसे हृदय रोग, जीर्णज्वर, रक्त पित्त कभी नहीं सताते तथा वह चिरजीवी होता है भाव मिश्र के अनुसार-

ककुभोर्ऽजुन नामाख्यो नदीसर्दश्च कीर्त्तितः
इन्द्रदुर्वीरवृक्षश्च वीरश्च धवलः स्मतः॥
ककुभो शीतलो हृद्यः क्षतक्षयविपाश्रजित
मेदोमेह वृणान हन्ति तुवरः कफपित्त कृत॥


अनेकों निघण्टुओं में अर्जुन सिद्ध घृत को हृदय रोगों की चाहे वे किसी भी प्रकार के हों, अचूक दवा माना गया है हृदयशूल के लिए अर्जुन की छाल का क्वाथ या चूर्ण विभिन्न अनुपानों के साथ लिए जाने का विधान जगह-जगह बताया गया है निघण्टु रतनाकर के अनुसार अर्जुन बलकारक है तथा अपने लवण-खनिजों के कारण हृदय की मांसपेशियों को सशक्त बनाता है
डॉ. खोरी अपनी पुस्तक 'मटेरिया मेडिका ऑफ इण्डिया' में लिखते हैं कि अर्जुन हृदय रोगों में कषाय होने के कारण मांसपेशियों के लिए एक टॉनिक का काम करता है

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