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Monday, September 28, 2009

Adulsa, Malabar Nut,अडूसा ,मालाबारनट

Adulsa, Malabar Nut is a medicinal plant native to Asia. The plant is found abudently in wild in all over Nepal, India, Pothohar region of Pakistan particularly Pharwala area, within Pakistan it is the Provincial flower of the Punjab (Pakistan).
Scientific name of this herb is Justicia adhatoda
Adhatoda consists of the fresh or dried leaves of Adhatoda Vasica, Nees (N.O. Acanthaceae), a shrub growing in India. The leaves vary from 10 to 15 centimeters in length, and are about 4 centimeters broad; they are opposite, entire, lanceolate, and shortly petiolate, tapering towards both apex and base. When dry they are of a dull brownish-green colour; odour, characteristic; taste, bitter. They possess well-marked histological features, which can easily be seen in fragments of the leaf cleared by chloral hydrate. The stomata are elongated-oval in shape and surrounded by two crescent-shaped cells, the long axes of which are at right angles to the ostiole. The epidermis bears simple one- to three-celled warty hairs, and small glandular hairs with a quadricellular secreting gland. Cystoliths occur beneath the epidermis of the under surface. Both hairs and cystoliths vary in number in different specimens
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This herb is Antiasthmatic,Antispasmodic,Bronchodilator,Expectorant ,Oxytocic. The pharmacological activities of vasicine and vasicinone are well known. The /-forms of vasicine and vasicinone are more active than their racemic forms. Recent investigations on vasicine showed bronchodilatory activity (comparable to theophylline) both in vitro and in vivo. Vasicinone showed bronchodilatory activity in vitro but bronchoconstrictory activity in vivo; it is probably biotransformed in vivo, causing bronchoconstriction. Both the alkaloids in combination (1:1) showed pronounced bronchodilatory activity in vivo and in vitro. Vasicine also exhibited strong respiratory stimulant activity, moderate hypotensive activity and cardiac-depressant effect; vasicinone was devoid of these activities. The cardiac-depressant effect was significantly reduced when a mixture of vasicine and vasicinone was used. Vasicinone (dl-form) showed no effect on the isolated heart, but probably the l-form is a weak cardiac stimulant. Clinical trials of a commercial drug containing vasicinone and vasicinone have not revealed any side effects while treating bronchial asthma. The drug is known to possess abortifacient activity and hence should not be used during pregnancy.
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अडूसा , मालाबारनट
जो सघन होने के कारण प्रदेश को आच्छादित कर ले उसे वासका या वासा कहा जाता है इसे वृष (फूलों में मधु अधिक होने से), वासक एवं मलाबार नट नाम से भी जाना जाता है

वानस्पतिक परिचय-
इसके झाड़ीदार, समूहगत क्षुप 4 से 8 फीट ऊँचे होते हैं, पत्ते 3 से 8 इंच लम्बे तथा फूल सफेद रंग के 2-3 इंच लंबी मंजरियों में लगे होते हें ये फरवरी-मार्च में आते हें तने पर पीले रंग की छाल होती है फली तीन चौथाई इंच लम्बी, रोम सहित होती तहै प्रत्येक में 4 बीज होते हैं यह क्षुप जड़ के ही ऊपर पृथ्वी के समीप शाखाओं-उपशाखाओं के रूप में फैलाना आरंभ कर देता है पत्ते रोमयुक्त कुछ हलकी सी दुर्गन्ध लिए होते हैं

यह सारे भारत में 1200 से 1400 मीटर की ऊँचाई तक कंकरीली भूमि में उगता है स्वयं ही समूहबद्ध क्षुप उग आते हैं इसकी कुछ जातियाँ बंगाल केरल में भी प्रचलित है पर बहु प्रयुक्त वासा वही है जिसे हम क्षुप रूप में जंगलों समूह में लगा पाते हैं

रोपण-
इसे कलम के रूप में भी लगाया जा सकता है गर्म रैतीली भूमि में यह जल्दी उगता है
मिलावट की संभावना अधिक होने से इसकी शुद्धाशुद्ध परीक्षा की कोई आवश्यकता नहीं

संग्रह-संरक्षण, कालावधि-
वासा के सदा हरित पौधे सर्वत्र सुलभ हैं, अतः पत्तों की ताजी अवस्था में ग्रहण कर संग्रह किया जाए पत्र पुष्पादि को छाया में सुखाकर अनादर शीतल स्थान में मुख बंद पात्र में रखा जाए औषधि कार्य हेतु उसे ही प्रयुक्त करनी चाहिए सामान्यतया ताजे पत्ते, सूखे पत्तों का चूर्ण, मल की छाल का चूर्ण एवं पुष्प प्रयुक्त होते हैं 6 माह तक संग्रहीत औषधि में गुण बने रहते हैं

गुण, कर्म संबंधी मत-
आचार्य सुश्रुत ने वासा को क्षय तथा कासनाशक माना है आचार्य ने स्वयं अपने शब्दों में लिखा है-'शोष क्षय में इसके फलांग पुष्पों के कल्क से सिद्ध किया घृत-शहद मिलाकर सेवन करने से (दुगुनी मात्रा में) प्रबल वेग युक्त कास श्वांस को तुरंत नष्ट करता है '

यहाँ तक कहा गया है कि-'वासायां विद्यमानायामामशायां जीवितस्य रक्तपित्ती क्षयी कासी किमर्यमवसीदति ' (वृन्द माधव) अर्थात् जीवन अवशेष और अडूसा के विद्यमान रहते हुए रक्त पित्त (रक्त वमन, हृदय, फेफड़ों से) क्षय तथा खांसी के रोगी किस लिए दुख पा रहे हैं
आचार्य चरक कहते हैं कि खाँसी के साथ कफ रक्त हो तो वासा अकेली ही समर्थ औषधि है
राज निघण्टु के मतानुसार अडूसा-खाँसी, रक्त पित्तनाशक, कफ निकालने वाली तथा ज्वर, श्वांस क्षय रोग को नष्ट करने वाली है
श्री भाव मिश्र के अनुसार वासा श्वांस हर, खाँसी का नाश करने वाली, कफ निवारक तथा ज्वर युक्त श्वांस क्षय रोग को नष्ट करती है

आधुनिक वैज्ञानिकों में अग्रणी डॉ. चोपड़ा ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है-इसके ताजे सुखाए गए पत्तियों के चूर्ण को देने परश्वांस नली की शोथ (एक्युट ब्रोंकाइटिस) से ग्रस्त रोगियों को तुरंत आराम मिला वे रोग मुक्त हो गए उनकी जीवनी शक्ति में अत्यधिक वृद्धि (एण्टीबॉडी स्तर बढ़ने के रूप में) पायी गई है क्रानिक ब्रोंकाइटिस (पुराने लंबे समय से चली रही खाँसी) में इसने लाभ किया रोगियों का कफ फल पतला हो गया तथा आराम मिलने लगा वेगस नाड़ी पर अपने तीव्र प्रभाव के कारण रोगी सांस भी आराम से ले सकने में समर्थ हो सके
डॉ. देसाई का मत है कि पत्तों से भी अधिक कफ निस्सारक क्षमता मूल में है मूल में विद्यमान घटक कफ को पतला करते हैं, रक्तवाही नलिकाओं को संकुचित कर रक्तस्राव रोकते हैं, इस प्रकार क्षय रोग में कफ के साथ आने वाले रक्त को रोकने में यह अति लाभकारी है

डॉ. वसुवकीर्तिकर का कथन है कि सावा वायु नलिकाओं के फैलकर व्रणों का स्थान बनने जैसी स्थितियों में (ब्रांकिएक्टेसिस) लंग एव्सेस में बहुत लाभकारी है मटेरिया मेडिका ऑफ इण्डिया में डॉ. आर.एन. खोरी लिखते हैं कि दमे के रोग में वासा की पत्तियों का धूम्रपान बहुत लाभ करता है डॉ. दत्ता जैसे वैज्ञानिकों ने वासा की उपयोगिता को चिकित्सा जगत के समक्ष बाज से लगभग सौ वर्ष पूर्व रख दिया था क्षय रोग के रोगियों पर प्रयोग कर उन्हें लाभ होते बताया था
पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति के प्रणेता ही नहीं, होम्योपैथिक के भारतीय जर्मन विद्वान वासा की प्रशंसा करते थकते नहीं उनके अनुसार एलर्जी, नाक से छींक आना, सर्दी से खाँसी हो जाना, गला बैठ जाना जैसी तकलीफों में तीसरी ऊँची पोटेन्सी में अडूसा का प्रयोग बहुत लाभ पहुँचाता है निष्णात होम्योपैथी चिकित्सक अडूसा में मदर टिंक्चर को कुकुर खाँसी साइनोसाइटिस जैसे रोगों में सफलता से प्रयुक्त करते हैं
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यूनानी चिकित्सा पद्धति में इसे बांस, ख्वाजा और हशीश तुस्सुआल (खाँसी की बूटी, कास तृण) कहा गया है उष्ण रुक्ष मानते हुए हकीम लोग इसका प्रयोग श्लेष्मा निस्सारक तथा जीवाणुनाशी-श्वांस संस्थान की औषधि के रूप में करते हैं यह स्वर शोधक भी है यूनानी हकीम जड़ की छाल का काढ़ा तथा पत्रों का काढ़ा प्रयोग करते हैं नकसीर रक्तपित्त को यह तुरन्त रोकता है, ऐसा हकीम दलजीतसिंह का मत है

रासायनिक संगठन-
इसकी पत्तियों में 0.2 से 0.4 प्रतिशत तक तिक्त एल्केलाइड वासनिक होता है पत्तियों में वासा अम्ल (एढेटोडिक एसिड), इसेंशियल आयल्स, वसा, राल, शर्करा तथा रंजक पदार्थ अमोनिया पाए गए हैं पत्तियों में प्रचुर मात्रा में लवण होते हैं, जिनमें पोटेशियम नाइट्रेट प्रमुख है वासा की जड़ में भी वासिकिन की मात्रा काफी होती हैं इस औषधि के गुण इन्हीं घटकों वासिकिन तथा वासा अम्ल सुगंधित तेल के कारण हैं

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग-निष्कर्ष-
अध्ययन बताते हैं कि वासा की पत्तियों का सारभूत तेल (इसेन्शियल आइल) जीवाणु नाशक क्षमता रखता है यह कफ निस्सारक भी है वासिकिन नामक एल्केलाइड फेफड़ों की श्वांस नलियों को फैलाता है यह प्रभाव थोड़ी देर नहीं, काफी समय तक बना रहता है इसका कारण संभवतः वेगस नाड़ी के प्रभाव से प्रतिकूल इस रसायन का प्रभाव होता है वेगस के उत्तेजन से उत्सर्जित रसायन जहाँ श्वांस नलियों को सिकोड़ते हैं वहाँ इस औषधि के एल्केलाइड्स इस प्रभाव को निरस्त कर देते हैं पाइलोकार्पीन नामक औषधि वासा के प्रभाव को रोक देती है एवं यह हर प्रकार के प्रभाव में वेगस से मिलती-जुलती है एल्केलाइड सारभूत तेल का कफ निस्सारक प्रभाव मिलकर श्वांस रोगों के लिए इसे एक प्रभावशाली औषधि बना देते हैं इण्डियन जनरल ऑफ फारमेसिटुकल साइन्स (416, 1979) के अनुसार वासा का यह मुख्य घटक तेल श्वांस नलिकाओं को फैलाता है तथा वासिकिन सहायक भूमिका निभाता है

ग्राह्य अंग-
पत्र, पुष्प, मूल की छाल एवं पंचांग चारों रूपों में यह प्रयुक्त हो सकता है

मात्रा-
पत्र का स्वरस (ताजा) 10 से 20 मिलीमीटर (2 से 4 चम्मच) पुष्प स्वरस (ताजा)-10 से 20 मिलीलीटर मूल क्वाथ- 1 औंस से 2 औंस तक पंचांग चूर्ण- 10 से 20 ग्राम

निर्धारणानुसार प्रयोग-
(1) खाँसी के लिए वासा के पत्रों का स्वरस 10 ग्राम शहद के साथ (5 ग्राम) मिलाकर प्रातः-सायं सेवन कराया जाता है ताजे पत्र मिल पाने की स्थिति में अडूसा के छाया में सुखाए फूलों का चूर्ण मधु के साथ देते हैं (निघण्टु आदर्श) अथवा अडूसे की छाल का क्वाथ 1 औंस सुबह-शाम देते हैं

(2) बच्चों की काली खाँसी (कुकुर खाँसी) वासा जड़ का क्वाथ डेढ़ से दो चम्मच 2-3 बार दिया जाता है

(3) कास एवं श्वांस साथ हों तो छाल का चूर्ण 10 से 20 ग्राम मात्रा में कफ निकालने के लिए दें वासा मूल 1 पाव लेकर यदि उसे विधिपूर्वक शरबत रूप में बना लिया जाए उसे नित्य उचित मात्रा में सेवन कराएँ तो पुरानी खाँसी दमा जड़ से नष्ट हो जाते हैं

(4) क्षय रोग में-वासा पत्र स्वरस 10 ग्राम शहद के साथ दें वासा पंचांग का चूर्ण या सिद्ध घृत भी शहद के साथ देने पर तुरन्त लाभ करता है
वासा के फूलों को दुगुनी मात्रा में मिश्री में मिलाकर मिट्टी या कांच के पात्र में मिलाकर रखने पर गुलकन्द तैयार हो जाता है 6 से 10 ग्राम मात्रा में नित्य लिए जाने पर कास-श्वांस, रक्त पित्त, पीनस, पुराना जुकाम, साइनोसाइटिस राज यक्ष्मा में लाभ पहुँचाता है

(5) ज्वर-युक्त दमा में यह कफ को पतला कर तुरन्त बाहर निकालता है, वेग कम करता है तथा रक्त नलिकाओं के वायु कोषों में प्रवाह को कम करता है

अन्य उपयोग-
स्थानीय रोगों में नाड़ी शूल तथा व्रणों में कल्क का, चर्मरोगों में पत्र का तथा स्वरस का बाहरी कृमियों को मारने में लेप के रूप में प्रयोग करते हैं

आंतरिक प्रयोग में श्वसन संस्थान में इसके उपयोग के अतिरिक्त यह रक्तस्राव रोकने वाला भी है पसीना लाता है, इस कारण ज्वर उतारता है सारे शरीर में धातु निर्माण क्रिया को बढ़ाने के कारण कमजोरी के बाद टॉनिक के रूप में प्रयुक्त होता है