It is also popularly known as Bilva, Bilwa, Bel, Kuvalam, Koovalam, Madtoum, or Beli fruit, Bengal quince, stone apple, and wood apple. The tree, which is the only species in the genus.
Sanskrit names:Bilva,Śalātu, Hṛdyagandha, Karkaṭa, Samirasāraka,Śivadruma,Triśikha, Śiveṣhṭa, Dūrāruha, Lakṣmī phala, Śalya, Mahākapithya etc.
BEL :- (Aegle), grows up to 18 meters tall and bears thorns and fragrant flowers. It has a woody-skinned, smooth fruit 5-15 cm in diameter. The skin of some forms of the fruit is so hard it must be cracked open with a hammer. It has numerous seeds, which are densely covered with fibrous hairs and are embedded in a thick, gluey, aromatic pulp.The fruit is eaten fresh or dried. If fresh, the juice is strained and sweetened to make a drink similar to lemonade, and is also used in making sharbat, a refreshing drink where the pulp is mixed with lime juice. If the fruit is to be dried, it is usually sliced first and left to dry by the heat of the sun. The hard leathery slices are then placed in a pan with several litres of water which is then boiled and simmered. As for other parts of the plant, the leaves and small shoots are eaten as salad greens. This tree is a larval foodplant for the following two Indian Swallowtail butterflies: The Lime Butterfly: Papilio demoleusThe Common Mormon: Papilio polytes.
Use in religious rituals :--
The fruit is also used in religious rituals and as a ayurvedic remedy for such ailments as diarrhea, dysentery, intestinal parasites, dryness of the eyes, and the common cold. It is a very powerful antidote for chronic constipation. In Hinduism, Every day Lakshmi had a thousand flowers plucked by her handmaidens and she offered them to the idol of Shiva in the evening. One day, counting the flowers as she offered them, she found that there were two less than a thousand. It was too late to pluck any more for evening had come and the lotuses had closed their petals for the night. Lakshmi thought it inauspicious to offer less than a thousand. Suddenly she remembered that Vishnu had once described her breasts as blooming lotuses. She decided to offer them as the two missing flowers. Lakshmi cut off one breast and placed it with the flowers on the altar. Before she could cut off the other, Shiva, who was extremely moved by her devotion, appeared before her and asked her to stop. He then turned her cut breast into round, sacred Bael fruit (Aegle marmelos) and sent it to Earth with his blessings, to flourish near his temples.***
बिल्व (बेल)
कहा गया है- 'रोगान बिलत्ति-भिनत्ति इति बिल्व ।' अर्थात् रोगों को नष्ट करने की क्षमता के कारण बेल को बिल्व कहा गया है । इसके अन्य नाम हैं-शाण्डिल्रू (पीड़ा निवारक), श्री फल, सदाफल इत्यादि । मज्जा 'बल्वकर्कटी' कहलाती है तथा सूखा गूदा बेलगिरी ।
वानस्पतिक परिचय-
सारे भारत में विशेषतः हिमालय की तराई में, सूखे पहाड़ी क्षेत्रों में 4 हजार फीट की ऊँचाई तक पाया जाता है । मध्य व दक्षिण भारत में बेल जंगल के रूप में फैला पाया जाता है । मध्य व दक्षिण भारत में बेल जंगल के रूप में फैला पाया जाता है । आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसे मंदिरों के पास लगाया जाता है ।
15 से 30 फीट ऊँचे कँटीले वृक्ष फलों से लदे अलग ही पहचान में आ जाते हैं । पत्ते संयुक्त विपत्रक व गंध युक्त होते हैं । स्वाद में वे तीखे होते हैं । गर्मियों में पत्ते गिर जाते हैं तथा मई में नए पुष्प आ जाते हैं । फल अलगे वर्ष मार्च से मई के बीच आ जाते हैं । फूल हरी आभा लिए सफेद रंग के होते हैं । सुगंध इनकी मन को भाने वाली होती है । फल 5 से 17 सेण्टीमीटर व्यास के होते हैं । खोल (शेल) कड़ा व चिकना होता है । पकने पर हरे से सुनहरे पीले रंग का हो जाता है । खोल को तोड़ने पर मीठा रेशेदार सुगंधित गूदा निकलता है । बीज छोटे, बड़े व कई होते हैं ।
बाजार में दो प्रकार के बेल मिलते हैं- छोटे जंगली और बड़े उगाए हुए । दोनों के गुण समान हैं । जंगलों में फल छोटा व काँटे अधिक तथा उगाए गए फलों में फल बड़ा व काँटे कम होते हैं ।
शुद्धाशुद्ध परीक्षा पहचान-
बेल का फल अलग से पहचान में आ जाता है । इसकी अनुप्रस्थ काट करने पर यह 10-15 खण्डों में विभक्त सा मालूम होता है, जिनमें प्रत्येक में 6 से 10 बीज होते हैं । ये सभी बीज सफेद लुआव से परस्पर जुड़े होते हैं । प्रायः सर्वसुलभ होने से इसमें मिलावट कम होती है । कभी-कभी इसमें गार्मीनिया मेंगोस्टना तथा कैथ के फल मिला दिए जाते हैं, परन्तु इसे काट कर इसकी परीक्षा की जा सकती है ।
संग्रह-संरक्षण एवं कालावधि-
छोटे कच्चे बेल के फलों का संग्रह कर, उन्हें अच्छी तरह छीलकर गोल-गोल कतरे नुमा टुकड़े काटकर सुखाकर मुख बंद डिब्बों में नमी रहती शीतल स्थान में रखना चाहिए । औषधि प्रयोग हेतु जंगली बेल ही प्रयुक्त होते हैं । खाने, शर्बत आदि के लिए ग्राम्य या लाए हुए फल ही प्रयुक्त होते हैं । इनकी वीर्य कालावधि लगभग एक वर्ष है ।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
आचार्य चरक और सुश्रुत दोनों ने ही बेल को उत्तम संग्राही बताया है । फल-वात शामक मानते हुए इसे ग्राही गुण के कारण पाचन संस्थान के लिए समर्थ औषधि माना गया है । आर्युवेद के अनेक औषधीय गुणों एवं योगों में बेल का महत्त्व बताया गया है, परन्तु एकाकी बिल्व, चूर्ण, मूलत्वक्, पत्र स्वरस भी बहुत अधिक लाभदायक है ।
चक्रदत्त बेल को पुरानी पेचिश, दस्तों और बवासीर में बहुत अधिक लाभकारी मानते हैं । बंगसेन एवं भाव प्रकाश ने भी इसे आँतों के रोगों में लाभकारी पाया है । डॉ. खोटी लिखते हैं कि बेल का फल बवासीर रोकता व कब्ज की आदत को तोड़ता है । आँतों की कार्य क्षमता बढ़ती है, भूख सुधरती है एवं इन्द्रियों को बल मिलता है ।
डॉ. नादकर्णी ने इसे गेस्ट्रोएण्टेटाइटिस एवं हैजे के ऐपीडेमिक प्रकोपो (महामारी) में अत्यंत उपयोगी अचूक औषधि माना है । विषाणु के प्रभाव को निरस्त करने तक की इसमें क्षमता है । डॉ. डिमक के अनुसार बेल का फल कच्ची व पकी दोनों ही अवस्थाओं में आँतों को लाभ करता है । कच्चा या अधपका फल गुण में कषाय (एस्ट्रोन्जेण्ट) होता है तथा अपने टैनिन एवं श्लेष्म (म्यूसीलेज) के कारण दस्त में लाभ करता है । पुरानी पेचिस, अल्सरेटिव कोलाइटिस जैसे जीर्ण असाध्य रोग में भी यह लाभ करता है । पका फल, हलका रेचक होता है । रोग निवारक ही नहीं यह स्वास्थ्य संवर्धक भी है ।
पाश्चात्य जगत् में इस औषधि पर काफी काम हुआ है । डॉ. एक्टन एवं नोल्स ने 'डीसेण्ट्रीस इन इण्डिया' पुस्तक में तथा डॉ. हेनरी एवं ब्राउन ने 'ट्रान्जेक्सन्स ऑफ रॉयल सोसायटी फॉर ट्रापिकल मेडीसन एण्ड हायजीन' पत्रिका में बेल के गुणों का विस्तृत हवाला दिया है एवं संग्रहणी, हैजे जैसे संक्रामक मारक रोगों के लिए बेल के गूदे को अन्य सभी औषधियों की तुलना में वरीयता दी है । ब्रिटिश फर्मेकोपिया में इसके तीन प्रयोग बताए गए हैं-ताजे कच्चे फल का स्वरस 1/2 से 1 चम्मच एक बार, सुखाकर कच्चे बेल के कतलों का जल निष्कर्ष 1 से 2 चम्मच दो बाद, बिल्व चूर्ण 2 से 4 ग्राम । ये सभी प्रकारांतर से संग्रहणी व रक्तस्राव सहित अतिसार में तुरंत लाभ करते हैं । पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने बेल के छिलके के चूर्ण को 'कषाय' मानते हुए ग्राहीगुण का पूरक उसे माना है व गूदे तथा छिलके दोनों के चूर्ण को दिए जाने की सिफारिश की है । पुरानी पेचिश में जहाँ रोगी को कभी कब्ज होता है, कभी अतिसार, अन्य औषधियाँ काम नहीं करतीं । ऐसे में बिल्व काउपयोग बहुत लाभ देता है व इस जीर्ण रोग से मुक्ति दिलाता है । बेल में म्यूसिलेज की मात्रा इतनी अधिक होती है कि डायरिया के तुरंत बाद वह घावों को भरकर आंतों को स्वस्थ बनाने में पूरी तरह समर्थ रहती हैं । मल संचित नहीं हो पाता और आँतें कमजोर होने से बच जाती हैं । होम्योपैथी में बेल के फल व पत्र दोनों को समान गुण का मानते हैं । खूनी बवासीर व पुरानी पेचिश में इसका प्रयोग बहुत लाभदायक होता है । अलग-अलग पोटेन्सी में बिल्व टिंक्चर का प्रयोग कर आशातीत लाभ देखे गए हैं । यूनानी मतानुसार इसका नाम है-सफरजले हिन्द । यह दूसरे दर्जे में सर्द व तीसरे में खुश्क है । हकीम दलजीतसिंह के अनुसार बेल गर्म और खुश्क होने से ग्राही है व पेचिश में लाभकारी है । रासायनिक संगठन- बेल के फल की मज्जा में मूलतः ग्राही पदार्थ पाए जाते हैं । ये हैं-म्युसिलेज पेक्टिन, शर्करा, टैनिन्स । इसमें मूत्र रेचक संघटक हैं-मार्मेलोसिन नामक एक रसायन जो स्वल्प मात्रा में ही विरेचक है । इसके अतिरिक्त बीजों में पाया जाने वाला एक हल्के पीले रंग की तीखा तेल (करीब 12 प्रतिशत) भी रेचक होता है । शकर 4.3 प्रतिशत, उड़नशील तेल तथा तिक्त सत्व के अतिरिक्त 2 प्रतिशत भस्म भी होती है । भस्म में कई प्रकार के आवश्यक लवण होते हैं । बिल्व पत्र में एक हरा-पीला तेल, इगेलिन, इगेलिनिन नामक एल्केलाइड भी पाए गए हैं । कई विशिष्ट एल्केलाइड यौगिक व खनिज लवण त्वक् में होते हैं । आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष- पेक्टिन जो बिल्व मज्जा का एक महत्त्वपूर्ण घटक है, एक प्रामाणिक ग्राही पदार्थ है पेक्टिन अपने से बीस गुने अधिक जल में एक कोलाइडल घोल के रूप में मिल जाता है, जो चिपचिपा व अम्ल प्रधान होता है । यह घोल आँतों पर अधिशोषक (एड्सारवेण्ट) वं रक्षक (प्रोटेक्टिव) के समान कार्य करता है । बड़ी आँत में पाए जाने वाले मारक जीवाणुओं को नष्ट करने की क्षमताभी इस पदार्थ में है । डॉ. धर के अनुसार बेल मज्जा के घटक घातक विषाणुओं के विरुद्ध मारक क्षमता भी रखते हैं । 'इण्डियन जनरल ऑफ एक्सपेरीमेण्टल वायोलॉजी' (6-241-1968) के अनुसार बिल्व फल हुकवर्म जो भारत में सबसे अधिक व्यक्तियों को प्रभावित करता पाया गया है, को मारकर बाहर निकाल सकने में समर्थ है । पके फल को वैज्ञानिकों ने बलवर्धक तथा हृदय को सशक्त बनाने वाला पाया है तो पत्र स्वरस को सामान्य शोथ तथा मधुमेह में एवं श्वांस रोग में लाभकारी पाया है । ग्राह्य अंग- फल का गुदा एवं बेलगिरी । पत्र, मूल एवं त्वक् (छाल) का चूर्ण । चूर्ण के लिए कच्चा, मुरब्बे के लिए अधपका एवं ताजे शर्बत के लिए पका फल लेते हैं । कषाय प्रयोग हेतु मात्र दिन में 2 या 3 बार । स्वरस- 10 से 20 मिलीलीटर (2 से 4 चम्मच) । शरबत- 20 से 40 मिलीलीटर (4 से 8 चम्मच) । पाचन संस्थान मं प्रयोग हेतु मूलतः बिल्व चूर्ण ही लेते हैं । कच्चा फल अधिक लाभकारी होता है । इसीलिए चूर्ण को शरबत आदि की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है । निर्धारणानुसार प्रयोग-मूल अनुपान शहद या मिश्री की चाशनी होते हैं । दाँत निकलते समय जब बच्चों को दस्त लगते हैं, तब बेल का 10 ग्राम चूर्ण आधा पाव पानी में पकाकर, शेष 20 ग्राम सत्व को 5 ग्राम शहद में मिलाकर 2-3 बार दिया जाता है । पुरानी पेचिश व कब्जियत में पके फल का शरबत या 10 ग्राम बेल 100 ग्राम गाय के दूध में उबालकर ठण्डा करके देते हैं । संग्रहणी जब खून के साथ व बहुत वेगपूर्ण हो तो मात्र कच्चे फल का चूर्ण 5 ग्राम 1 चम्मच शहद के साथ 2-4 बार देते हैं । कब्ज व पेचिश में पत्र-स्वरस लगभग 10 ग्राम 2-3 घंटे के अंतर से 4-5 बार दिए जाने पर लाभ करता है । हैजे की स्थिति में बेल का शरबत या बिल्व चूर्ण गर्म पानी के साथ देते हैं । कोष्ठबद्धता में सायंकाल बेल फल मज्जा, मिश्री के साथ ली जाती है । इसमें मुरब्बा भी लाभ करता है । अग्निमंदता, अतिसार व गूदा गुड़ के साथ पकाकर या शहद मिलाकर देने से रक्तातिसार व खूनी बवासीर में लाभ पहुँचाता है । पके फल का जहाँ तक हो सके, इन स्थितियों में प्रयोग नहीं करना चाहिए । इसकी ग्राही क्षमता अधिक होने से हानि भी पहुँच सकती है । कब्ज निवारण हेतु पका फल उपयोगी है । पत्र का स्वरस आषाढ़ व श्रावण में निकाला जाता है, दूसरी ऋतुओं में निकाला गया रस लाभकारी नहीं होता । काली मिर्च के साथ दिया गया पत्रस्वरस पीलिया तथा पुराने कब्ज में आराम पहुँचाता है । हैजे के बचाव हेतु भी फल मज्जा प्रयुक्त हो सकती है । अन्य उपयोग- आँखों के रोगों में पत्र स्वरस, उन्माद-अनिद्रा में मूल का चूर्ण, हृदय की अनियमितता में फल, शोथ रोगों में पत्र स्वरस का प्रयोग होता है । श्वांस रोगों में एवं मधुमेह निवारण हेतु भी पत्र का स्वरस सफलतापूर्वक प्रयुक्त होता है । विषम ज्वरों के लिए मूल का चूर्ण व पत्र स्वरस उपयोगी है । सामान्य दुर्बलता के लिए टॉनिक के समान प्रयोग करने के लिए बेल का उपयोग पुराने समय से ही होता आ रहा है । समस्त नाड़ी संस्थान को यह शक्ति देता है तथा कफ-वात के प्रकोपों को शांत करता है । |
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