Ashvagandha, अश्वगंधा, Scientific name this herb is Withania somnifera also known as Winter cherry.
This is one of the most important herb widely used in Ayurveda to reduce stress, anxiety, increase energy levels, relaxes nerves & increases mental ability.
In Ayurveda ashvaganda is considered a rasayana herb. This herb is also considered an adaptogen which is an herb that works to normalize physiological function, working on the neuroendocrine. In Ayurveda, the fresh roots are sometimes boiled in milk, prior to drying, in order to leach out undesirable constituents. The berries are used as a substitute for rennet, to coagulate milk in cheese making.
It grows as a stout shrub that reaches a height of 170 cm (5 to 6 feet). Like the tomato which belongs to the same family, it bears yellow flowers and red fruit, though its fruit is berry-like in size and shape. Ashwagandha grows prolifically in India,Nepal, Pakistan, Sri Lanka and Bangladesh. It is commercially cultivated in Madhya Pradesh (a state in India).
इसे असंगध एवं बाराहरकर्णी भी कहते हैं। कच्ची जड़ से अश्व जैसी गंध आती है इसीलिए भी इसे अश्वगंधा या वाजिगंधा कहा जाता है तथा इसका सेवन करते रहने से भी अश्व जैसा उत्साह उत्पन्न होता है अतः नाम सार्थक है। सूख जाने पर यह गंध कम हो जाती है ।
वानस्पतिक परिचय-
यह सारे भारत में पश्चिमोत्तर भाग, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब तथा हिमांचल में 5000 फीट की ऊँचाई तक पाई जाती है। मध्य प्रदेश के पश्चिमोत्तर जिले मंदसौर की मनासा तहसील में इसकी बड़े पैमाने पर खेती की जाती है तथा सारे भारत की व्यावसायिक पूर्ति वहीं से होती है। पहले यह नागोर (राजस्थान) में बहुत होता था और वहीं से सर्वत्र भेजा जाता था। अतः इसे नागौरी असंगध भी कहा जाता था। यह नाम अभी भी प्रसिद्ध है।
इसका क्षुप झाड़ीदार एक से चार फुट ऊँचा बहुशाखा युक्त होता है। शाखाएँ गोलाकार चारों ओर फैली रहती है। कहीं-कहीं बड़े-बड़े वृक्षों के नीचे जलाशयों के समीप यह बारहों माह हरी भरी स्थिति में पाया जाता है। आकार में यह छोटी कंटेरा जैसा परन्तु कण्टक रहित होता है। पत्र जोड़े में अखण्डित अण्डाकार 5-10 सेण्टीमीटर लंबे तथा 3 से 5 सेण्टीमीटर चौड़े होते हैं। ये आकार में लंबे, बीज छोटे लटवाकार से लेकर कहीं-कहीं पलाश के पत्ते सदृश बड़े होते हैं। डण्ठल बहुत ही छोटा होता है।
पुष्प छोटे-छोटे कुछ लंबे, कुछ पीला व हरापन लिए चिलम के आकार के होते हैं। शाखाओं के अग्र भाग पर खिलते हैं। इन पर भी डण्ठल के समान सफेद छोटे-छोटे रोम होते हैं। फल छोटे-छोटे गोल मटर या मकोय के फल के समान पहले हरे-फिर कार्तिक मास में पकने पर लाल रंग के हो जाते हैं। ये रसभरी के फलों के समान दिखते हैं। फल के अन्दर लोआव तथा कटेरी के बीजों के समान श्वेत असंख्यों बीज होते हैं। इन्हें यदि दूध में डाल दिया जाए तो वे उसे जमा भी देते हैं।
मूल 4 से 8 इंच लंबी ऊपर से मटमैली अन्दर से सफेद शंकु के आकार की होती है । यह नीचे से मोटी ऊपर से पतली, गोल व चिकनी होती है। गीली ताजी जड़ से घ्ज्ञोड़े के मूत्र के समान तीव्र गंध आती है, जिसका स्वाद तीखा होता है। शरद ऋतु में फूल आते हैं तथा कार्तिक मार्गशीर्ष में पकते हैं। बरसात में इसके बीज बोये जाते हैं तथा जाड़े में फसल निकाली जाती है।
शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
बाजारों में मिलने वाली शुष्क जड़ 10 से 20 सेण्टीमीटर लंबी छोटे बड़े टुकड़ों के रूप में होती है। यह प्रायः खेती किए हुए पौधे की जड़ होती है। जंगली पौधों की अपेक्षा उसमें स्टार्च आदि अधिक होता है। आन्तरिक प्रयोग के लिए खेती वाले पौधे की जड़ तथा लेप आदि प्रयोग के लिए जंगली पौधे की जड़ ठीक बैठती है। असगंध दो प्रकार की होती है-छोटी तथा बड़ी। छोटी असगंध का क्षुप छोटा, परन्तु मूल बड़ा होता है। पूर्व में नागौरी असगंध को देशी भी कहते हैं। इसका क्षुप बड़ा तथा जड़ें छोटी व पतली होती है। बाजारों में असगंध की जाति के ही एक भेद फाकनज की जड़ें भी मिला दी जाती हैं। कुछ व्यक्ति कन्वाव्ध्ययन असगंधा को अश्वगंधा मान बैठते हैं, जबकि वह आन्तरिक प्रयोग के लिए नहीं है, विषैली है।
रोपण-
यह उन स्थानों पर भी उग आता है, जहाँ अन्य वनौषधियाँ नहीं लग पातीं ।5 किलो ग्राम बीज लगभग एक हैक्टेयर भूमि के लिए पर्याप्त है। पहले नर्सरी में उगाकर उन्हें आधा-आधा मीटर की दूरी पर खेत में फैला देते हैं। सिंचाई की आवश्यकता अधिक नहीं पड़ती। देखरेख एवं खाद आदि इतनी जरूरत नहीं। अधिक वर्षा तो हानिकारक है। दिसम्बर में फूल-फल आने के बाद मार्च में समूल फसल काट ली जाती है। जड़ों को कूट कर मिट्टी हटा देते हैं और पतली अलग कर मोटी जड़ों को औषधि प्रयोजन हेतु चुन लेते हैं।
संग्रह-संरक्षण-कालावधि-
उत्तम जड़ों को चुनकर सुखाकर एयरटाइड सूखे शीतल स्थानों पर रखते हैं। इन्हें एक वर्ष तक प्रयुक्त किया जा सकता है।
आचार्य चरक ने असगंध को उत्कृष्ट वल्य माना है एवं सभी प्रकार के जीर्ण रोगियों, क्षयशोथ आदि के लिए इसे उपयुक्त माना है। सुश्रुत के अनुसार यह औषधि किसी भी प्रकार की दुर्बलता-कृषता में गुणकारी है। चक्रदत्त के अनुसार-
पादकल्केऽश्वगंधायाः क्षीरे दशगुण पचेत्।
घृतं पेयं कुमाराणां पुष्टिकृद्वलवर्धनम्॥
पुष्टि बलवर्धन हेतु इससे श्रेष्ठ औषधि आयुर्वेद के विद्वान कोई और नहीं मानते। चक्रदत्त ही के अनुसार यदि अश्वगंधा का चूर्ण 15 दिन दूध, घृत अथवा तेल या जल से लेने पर बालक का शरीर उसी प्रकार पुष्ट होता है जैसे जल वर्षा होने पर फसलों की पुष्टि होती है। यही नहीं, शिशिर ऋतु में यदि कोई वृद्ध इसका एक माह भी सेवन करता है तो वह युवा बन जाता है। श्री भाव मिश्र लिखते हैं-
अश्वगंधा निलशेष्मश्वित्र शोथक्षयापहा।
वल्या रसप्यनी तिक्ता कषायोष्णातिशुबला॥
अर्थात्-क्षय आदि रोगों में तो लाभकारी है ही बलवर्धक रसायन एवं अतिशुक्रल है।
आयुर्वेद के अन्य विद्वान् बताते हैं कि असगंध धातुओं की वृद्धि विशिष्ट रूप से करता है। मांस मज्जा की वृद्धि उनका शोधन तथा जीवनावध्धि बढ़ना भी इसके वृहण गुण के कारण संभव हो पाता है।
डॉ. आर.एन. खोरी के अनुसार असगंध एक शक्तिवर्धक रसायन और अवसादक है। इसकी मूल का चूर्ण दूध या घी के साथ यह निद्रा लाता है तथा शुक्राणुओं की वृद्धि कर एक प्रकार के एफ्रोडिजियक (कोमोत्तेजक) की भूमिका निभाता है, परन्तु इसका कोई अवांछनीय प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता।
श्री नादकर्णी के अनुसार अश्वगंधा प्रधानतः एक टॉनिक है। यह शरीर के बिगड़े हुए क्रिया-कलापों को सुव्यवस्थित करती है। वातशामक होने के कारण थकान का निवारण कर शक्ति प्रदान करती है। यह अंग-अवयवों की, जीवकोषों की आयु बढ़ाती है। इस प्रकार असमय बुढ़ापा नहीं आने देती। वेल्थ ऑफ इण्डिया के अनुसार यह बच्चों के सूखा रोग में लाभकारी है। इसके तने की सब्जी भी खिलाई जाती है व सूखा रोग हेतु यह एक ग्रामीण चिर प्रचलित औषधि है।
होम्योपैथी में इसका वर्णन कहीं प्रयोग के रूप में नहीं मिलता। कहीं छुटपुट प्रयोग हुए हों तो प्रकाशित न होने के कारण उनकी जानकारी उपलब्ध नहीं है।
यूनानी में अश्वगंधा को वहमनेवरी के नाम से जाना जाता है। हब्ब असगंधा इसका एक प्रसिद्ध योग है। हकीम दलजीतसिंह के अनुसार यह तीसरे दर्जे में उष्ण रुक्ष है। इसका गुण, बाजीकरण बलवर्धक, शुक्रल, वीर्य पुष्टिकर है। महिलाओं को प्रसवोपरांत देने से यह बल प्रदान करता है।
रासायनिक संरचना-
अश्वगंधा की जड़ में कई एल्केलाइड्स पाए गए हैं। इनकी कुल मात्रा 0.13 से 0.31 प्रतिशत तक होती है। 'वेल्थ ऑफ इण्डिया' के मतानुसार तेरह एल्केलाइड क्रोमेटोग्राफी की विधि से अलग किए गए हैं। इनमें प्रमुख हैं-कुस्कोहाइग्रीन, एनाहाइग्रीन, ट्रोपीन, स्युडोट्रोपीन, ऐनाफेरीन, आईसोपेलीन, टोरीन और तीन प्रकार के ट्रोपिलीटग्लोएट। जर्मन व रूसी वैज्ञानिकों ने असगंध की जड़ में अन्य एल्केलाइड होने का भी दावा किया है, जिसमें प्रमुख हैं-विदासोमिन एवं विसामिन एल्केलाइडों के अलावा इस क्षुप की जड़ में स्टार्च शर्करा, ग्लाइकोमाइड्स-हेण्टि्रयाकाल्टेन तथा अलसिटॉल, विदनाल पाए गए हैं। इसमें बहुत से अमीनो अम्ल मुक्तावस्था में होते हैं यथा एस्पार्टिक अम्ल, ग्लाइसिन आयरोसिन, एलेनिन, प्रोलीन, टि्रप्योफैन, ग्लूटेमिक अम्ल एवं सिस्टीन।
अश्वगंधा की पत्तियों में विदानोलाइड परिवार के पदार्थ पाए जाते हैं जो बदलते रहते हैं। पत्तियों का स्वरूप एक-सा रहने पर भी रासायनिक दृष्टि से अंतर पाया गया है। बारह प्रकार के विदानोलाइड अलग-अलग पौधों से प्राप्त किए गए हैं जो एक ही क्यारी में एक साथ रोपे गए थे। इसके अलावा पत्तियों में एल्केलाइड्स ग्लाकोसाइड्स, ग्लूकोस एवं मुक्त अमीनो अम्ल भी पाए गए हैं।
असगंध के तने में प्रोटीन बहुतायत से पाए गए हैं। इनमें रेशा बहुत कम तथा कैल्शियम व फॉस्फोरस प्रचुर मात्रा में होते हैं। कई अमीनो अम्ल भी मुक्तावस्था में पाए गए हैं। जड़, तने तथा फल में टैनिन एवं फ्लेविनाइड भी होते हैं। इसके फलों में प्रोटीनों को पचाने वाला एक एन्जाइम कैमेस भी पाया गया है।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोगों के निष्कर्ष-
अश्वगंधा पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य मद्रास में डॉ. कुप्पु राजन आदि द्वारा किया गय है। जनरल ऑफ रिसर्च इन आयुर्वेद एण्ड सिद्धा के अनुसार (जून 1980) 50 से 51 वर्ष के 101 नर, वृद्धों पर इस औषधि का चूर्ण रूप में प्रयोग करने पर अश्वगंधा को आयु बढ़ाने वाला पाया गया। प्रत्येक व्यक्ति को एक वर्ष तक प्रतिदिन एक-एक ग्राम असंगध मूल चूर्ण दिन में तीन बार दूध के साथ दिया गया। कण्ट्रोल वग्र की तुलना में अश्वगंधा ग्रहण करने वाले व्यक्तियों में हिमोग्लोबिन, लाल रक्त कणों की संख्या व बालों की कालापन बढ़ा। जिनकी कमर झुकती थी उनके खड़े होने का तरीका सुधरा व संधियों में लचीलापन आया।
इनका सीरम कोलेस्टेरॉल (रक्त में घुलनशील वसा) घटा तथा रक्त कणों को बैठने की गति (इरिथ्रोसाइट सेडीमेण्टेशन रेट ई. एस. आर./ESR) भी कम हुई। अध्ययन के निष्कर्ष बताते हुए वैज्ञानिकों ने कहा कि यह औषधि वृहणीय (मांस भेद बढ़ाने वाला) तथा रसायन सप्त धातु पोषक है।
अश्वगंधा एक प्रकार का हिमेटिनिक (रक्त लौह बढ़ाने वाला) भी है। इसमें प्रति 100 ग्राम 709.4 मिलीग्राम लोहा भी पाया गया है। यह अन्य पौधों की जड़ों में पाए जाने वाले लोहे से कहीं अधिक है। लोहे के अतिरिक्त अश्वगंधा जड़ में प्रचुर मात्रा में वेलीन, टायरोसीन, प्रेलीन, एलेनिन तथा ग्लाइसिन आदि अमीनो अम्ल मुक्तावस्था में पाए गए हैं। लोहे के साथ मुक्त अमीनो अम्लों का पाया जाना इसका अच्छा 'हिमेटिनिक टॉनिक' बनाता है।
प्रयोज्य अंग-
जड़ मुख्यतः प्रयुक्त होती है। पत्तियों का भी कहीं-कहीं प्रयोग किया जाता है। इसके बज जहरीले होते हैं।
मात्रा-
(अ) मूल चूर्ण- 1 से 3 ग्राम एक बार में। (ब) क्षार- 1 से 3 ग्राम एक बार में। (स) घृत- (जड़ का क्वाथ+समान भाग मक्खन+ दस गुना गौदुग्ध को उबालकर) 2 चम्मच प्रातः नित्य। (द) पाक-एक किलो असगंध जौर कुट+20 किलो जल को उबाल कर दो किलो शेष रहने पर छान लें। इसमें दो किलो शक्कर मिलाकर पकाने पर पाक चाशरी की तरह तैयार हो जाता है। बच्चों को एक चम्मच प्रातः सायं बड़ों को दुगुनी मात्रा में देनेसे बलवर्धन करता है।
निर्धारणानुसार प्रयोग-
चक्रदत्त संहिता में विद्वान चिकित्सक लिखते हैं-
पीताश्वगंधा पयसार्धमासं घृतेन तैलेन सुखाम्बुना वा।
कृशस्य पुस्टि वपुषो विधत्ते बालस्य सस्यस्य यथाम्बुवृष्टिः॥
मूलतः अश्वगंधा कृशकाय रोगियों, सूखा रोग से ग्रस्त बच्चों व व्याधि उपरांत कमजोरी में, शारीरिक, मानसिक थकान में पुष्टि कारक बलवर्धक के नाते प्रयुक्त होती रही है।
यकृत में वसा कोशिकाओं के अनाधिकार विस्तार (फैटीइन्फिल्ट्रेशन) से होने वाले कुपोषण, बुढ़ापे की कमजोरी, मांसपेशियों की कमजोरी व थकान, रोगों के बाद की कृशता आदि में असगंध मूल चूर्ण आतिशा घृत या पाक निर्धारित मात्रा में सेवन कराते हैं । मूल चूर्ण को दूध के अनुपात के साथ देते हैं।
क्षय रोग में अन्य जीवाणुनाशी औषधियों के साथ बल्य रूप में मूलचूर्ण को गोघृत या मिश्री के साथ देते हैं। गर्भवती महिलाओं में तीन माह बल संवर्धन हेतु मूल क्वाथ में चौगुनी घृत मिलाकर पाक बनाकर सेवन कराते हैं।
लगातार एक वर्ष सेवन से शरीर से सारे विकार बाहर निकल जाते हैं-समग्रशोधन होकर दुर्बलता दूर हो जाती है व जीवनीशक्ति बढ़ती है। यह औषधि काया कल्प योग की एक प्रमुख औषधि मानी जाती है। इसका कल्प भी करते हैं व ऐसा माना जाता है कि इसका निरंतर उपयोग अमृता की तरह जरा को कभी समीप नहीं आने देता। अगहन पूष माह में इसका सेवन विशेष लाभकारी है।
अन्य उपयोग-
कफ वात शामक तथा वेदना संशामक होने के कारण यह वात नाड़ी संस्थान के रोगों में भी प्रयुक्त होता है। मूल से सिद्ध तैल वात व्याधि में जोड़ों पर तथा थायराइड या ग्रंथियों की वृद्धि में पत्तों को लेप करने से भी लाभ होता है। यह नींद लाने वाला एक श्रेष्ठ हिप्नोटिक है। रक्तचाप व शोथ को कम करता है। श्वांस रोग में भी असगंध क्षार अथवा चूर्ण को मधु एवं घृत के साथ देने का प्रावधान है। शुक्र दौर्बल्य प्रदर, योनि शूल में उपयोगी है। वाल शोष, क्षय रोग, जीर्ण व्याधि यथा कैंसर से सामान्य दुर्बलता निवारण तथा वेदना दूर करने के लिए इसे देते हैं। जीव कोशों पर अपने प्रभाव के कारण यह वर्ण विकारों तथा कुष्ठ रोगों पर भी कुछ प्रभाव रखता है, ऐसा मत है।
मूलतः यह औषधि रसायन-बल्य है। इसका प्रयोग कर निश्चित ही दीर्घाष्यु को प्राप्त कर सकना संभव है। एजींग (वार्धक्य) पर इस औषधि की शोध अगले दिनों जब की जाएगी तो शास्रों के वे सभी अभिमत सफल सिद्ध होंगे, जिनमें इसे जरा निवारक बताया गया है। स्जींग संबंधी रोग यथा क्रानिक ऑब्सट्रक्टिव लंग डीसिज (सी.ओ.एल.डी.) डि जेनरेटिव बीमारियाँ, कैंसर प्रिकार्सीनोमट परिस्थितियाँ (गैस्ट्राइटिस, प्लमर विल्सन सिन्ड्रोम) आदि में संभवतः अगले दिनों इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका सिद्ध होगी। यदि ऐसा हो सका तो यह एक अति फलदायी शोध होगी।
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