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This blog of mine is to give a comprehensive description of Great Indian HERBS, to the World. So that every one could be benefited from it......!!!
It is also popularly known as Bilva, Bilwa, Bel, Kuvalam, Koovalam, Madtoum, or Beli fruit, Bengal quince, stone apple, and wood apple. The tree, which is the only species in the genus.
Sanskrit names:Bilva,Śalātu, Hṛdyagandha, Karkaṭa, Samirasāraka,Śivadruma,Triśikha, Śiveṣhṭa, Dūrāruha, Lakṣmī phala, Śalya, Mahākapithya etc.
BEL :- (Aegle), grows up to 18 meters tall and bears thorns and fragrant flowers. It has a woody-skinned, smooth fruit 5-15 cm in diameter. The skin of some forms of the fruit is so hard it must be cracked open with a hammer. It has numerous seeds, which are densely covered with fibrous hairs and are embedded in a thick, gluey, aromatic pulp.पाश्चात्य जगत् में इस औषधि पर काफी काम हुआ है । डॉ. एक्टन एवं नोल्स ने 'डीसेण्ट्रीस इन इण्डिया' पुस्तक में तथा डॉ. हेनरी एवं ब्राउन ने 'ट्रान्जेक्सन्स ऑफ रॉयल सोसायटी फॉर ट्रापिकल मेडीसन एण्ड हायजीन' पत्रिका में बेल के गुणों का विस्तृत हवाला दिया है एवं संग्रहणी, हैजे जैसे संक्रामक मारक रोगों के लिए बेल के गूदे को अन्य सभी औषधियों की तुलना में वरीयता दी है । ब्रिटिश फर्मेकोपिया में इसके तीन प्रयोग बताए गए हैं-ताजे कच्चे फल का स्वरस 1/2 से 1 चम्मच एक बार, सुखाकर कच्चे बेल के कतलों का जल निष्कर्ष 1 से 2 चम्मच दो बाद, बिल्व चूर्ण 2 से 4 ग्राम । ये सभी प्रकारांतर से संग्रहणी व रक्तस्राव सहित अतिसार में तुरंत लाभ करते हैं । पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने बेल के छिलके के चूर्ण को 'कषाय' मानते हुए ग्राहीगुण का पूरक उसे माना है व गूदे तथा छिलके दोनों के चूर्ण को दिए जाने की सिफारिश की है । पुरानी पेचिश में जहाँ रोगी को कभी कब्ज होता है, कभी अतिसार, अन्य औषधियाँ काम नहीं करतीं । ऐसे में बिल्व काउपयोग बहुत लाभ देता है व इस जीर्ण रोग से मुक्ति दिलाता है । बेल में म्यूसिलेज की मात्रा इतनी अधिक होती है कि डायरिया के तुरंत बाद वह घावों को भरकर आंतों को स्वस्थ बनाने में पूरी तरह समर्थ रहती हैं । मल संचित नहीं हो पाता और आँतें कमजोर होने से बच जाती हैं । होम्योपैथी में बेल के फल व पत्र दोनों को समान गुण का मानते हैं । खूनी बवासीर व पुरानी पेचिश में इसका प्रयोग बहुत लाभदायक होता है । अलग-अलग पोटेन्सी में बिल्व टिंक्चर का प्रयोग कर आशातीत लाभ देखे गए हैं । यूनानी मतानुसार इसका नाम है-सफरजले हिन्द । यह दूसरे दर्जे में सर्द व तीसरे में खुश्क है । हकीम दलजीतसिंह के अनुसार बेल गर्म और खुश्क होने से ग्राही है व पेचिश में लाभकारी है । रासायनिक संगठन- बेल के फल की मज्जा में मूलतः ग्राही पदार्थ पाए जाते हैं । ये हैं-म्युसिलेज पेक्टिन, शर्करा, टैनिन्स । इसमें मूत्र रेचक संघटक हैं-मार्मेलोसिन नामक एक रसायन जो स्वल्प मात्रा में ही विरेचक है । इसके अतिरिक्त बीजों में पाया जाने वाला एक हल्के पीले रंग की तीखा तेल (करीब 12 प्रतिशत) भी रेचक होता है । शकर 4.3 प्रतिशत, उड़नशील तेल तथा तिक्त सत्व के अतिरिक्त 2 प्रतिशत भस्म भी होती है । भस्म में कई प्रकार के आवश्यक लवण होते हैं । बिल्व पत्र में एक हरा-पीला तेल, इगेलिन, इगेलिनिन नामक एल्केलाइड भी पाए गए हैं । कई विशिष्ट एल्केलाइड यौगिक व खनिज लवण त्वक् में होते हैं । आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष- पेक्टिन जो बिल्व मज्जा का एक महत्त्वपूर्ण घटक है, एक प्रामाणिक ग्राही पदार्थ है पेक्टिन अपने से बीस गुने अधिक जल में एक कोलाइडल घोल के रूप में मिल जाता है, जो चिपचिपा व अम्ल प्रधान होता है । यह घोल आँतों पर अधिशोषक (एड्सारवेण्ट) वं रक्षक (प्रोटेक्टिव) के समान कार्य करता है । बड़ी आँत में पाए जाने वाले मारक जीवाणुओं को नष्ट करने की क्षमताभी इस पदार्थ में है । डॉ. धर के अनुसार बेल मज्जा के घटक घातक विषाणुओं के विरुद्ध मारक क्षमता भी रखते हैं । 'इण्डियन जनरल ऑफ एक्सपेरीमेण्टल वायोलॉजी' (6-241-1968) के अनुसार बिल्व फल हुकवर्म जो भारत में सबसे अधिक व्यक्तियों को प्रभावित करता पाया गया है, को मारकर बाहर निकाल सकने में समर्थ है । पके फल को वैज्ञानिकों ने बलवर्धक तथा हृदय को सशक्त बनाने वाला पाया है तो पत्र स्वरस को सामान्य शोथ तथा मधुमेह में एवं श्वांस रोग में लाभकारी पाया है । ग्राह्य अंग- फल का गुदा एवं बेलगिरी । पत्र, मूल एवं त्वक् (छाल) का चूर्ण । चूर्ण के लिए कच्चा, मुरब्बे के लिए अधपका एवं ताजे शर्बत के लिए पका फल लेते हैं । कषाय प्रयोग हेतु मात्र दिन में 2 या 3 बार । स्वरस- 10 से 20 मिलीलीटर (2 से 4 चम्मच) । शरबत- 20 से 40 मिलीलीटर (4 से 8 चम्मच) । पाचन संस्थान मं प्रयोग हेतु मूलतः बिल्व चूर्ण ही लेते हैं । कच्चा फल अधिक लाभकारी होता है । इसीलिए चूर्ण को शरबत आदि की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है । निर्धारणानुसार प्रयोग-मूल अनुपान शहद या मिश्री की चाशनी होते हैं । दाँत निकलते समय जब बच्चों को दस्त लगते हैं, तब बेल का 10 ग्राम चूर्ण आधा पाव पानी में पकाकर, शेष 20 ग्राम सत्व को 5 ग्राम शहद में मिलाकर 2-3 बार दिया जाता है । पुरानी पेचिश व कब्जियत में पके फल का शरबत या 10 ग्राम बेल 100 ग्राम गाय के दूध में उबालकर ठण्डा करके देते हैं । संग्रहणी जब खून के साथ व बहुत वेगपूर्ण हो तो मात्र कच्चे फल का चूर्ण 5 ग्राम 1 चम्मच शहद के साथ 2-4 बार देते हैं । कब्ज व पेचिश में पत्र-स्वरस लगभग 10 ग्राम 2-3 घंटे के अंतर से 4-5 बार दिए जाने पर लाभ करता है । हैजे की स्थिति में बेल का शरबत या बिल्व चूर्ण गर्म पानी के साथ देते हैं । कोष्ठबद्धता में सायंकाल बेल फल मज्जा, मिश्री के साथ ली जाती है । इसमें मुरब्बा भी लाभ करता है । अग्निमंदता, अतिसार व गूदा गुड़ के साथ पकाकर या शहद मिलाकर देने से रक्तातिसार व खूनी बवासीर में लाभ पहुँचाता है । पके फल का जहाँ तक हो सके, इन स्थितियों में प्रयोग नहीं करना चाहिए । इसकी ग्राही क्षमता अधिक होने से हानि भी पहुँच सकती है । कब्ज निवारण हेतु पका फल उपयोगी है । पत्र का स्वरस आषाढ़ व श्रावण में निकाला जाता है, दूसरी ऋतुओं में निकाला गया रस लाभकारी नहीं होता । काली मिर्च के साथ दिया गया पत्रस्वरस पीलिया तथा पुराने कब्ज में आराम पहुँचाता है । हैजे के बचाव हेतु भी फल मज्जा प्रयुक्त हो सकती है । अन्य उपयोग- आँखों के रोगों में पत्र स्वरस, उन्माद-अनिद्रा में मूल का चूर्ण, हृदय की अनियमितता में फल, शोथ रोगों में पत्र स्वरस का प्रयोग होता है । श्वांस रोगों में एवं मधुमेह निवारण हेतु भी पत्र का स्वरस सफलतापूर्वक प्रयुक्त होता है । विषम ज्वरों के लिए मूल का चूर्ण व पत्र स्वरस उपयोगी है । सामान्य दुर्बलता के लिए टॉनिक के समान प्रयोग करने के लिए बेल का उपयोग पुराने समय से ही होता आ रहा है । समस्त नाड़ी संस्थान को यह शक्ति देता है तथा कफ-वात के प्रकोपों को शांत करता है । |