हरड़ (टर्मिनेलिया चेब्यूला)
हरीतकी को वैद्यों ने चिकित्सा साहित्य में अत्यधिक सम्मान देते हुए उसे अमृतोपम औषधि कहा है । राज बल्लभ निघण्टु के अनुसार-
यस्य माता गृहे नास्ति, तस्य माता हरीतकी ।
कदाचिद् कुप्यते माता, नोदरस्था हरीतकी॥
अर्थात् हरीतकी मनुष्यों की माता के समान हित करने वाली है ।
माता तो कभी-कभी कुपित भी हो जाती है,
परन्तु उदर स्थिति अर्थात् खायी हुई हरड़ कभी भी अपकारी नहीं होती ।
आर्युवेद के ग्रंथकार हरीतकी की इसी प्रकार स्तुति करते हैं वे कहते हैं कि
'तू हर (महादेव) के भवन में उत्पन्न हुई है इसलिए अमृत से भी श्रेष्ठ है ।'
वस्तुतः यह मूल रूप से गंगा के किनारे बसने वाला वृक्ष भी है । ड्यूथी ने अपने प्रसिद्ध 'फ्लोरा ऑफ द अपर गैगेटिक प्लेन' ग्रंथ में लिखा भी है कि हरड़ का मूल स्थान गंगातट ही है । यहीं से यह सारे भारत और विश्व में फैली है । मदनपाल निघण्टु में ग्रंथाकार लिखता है-
हरस्य भवने जाता हरिता च स्वभावतः ।
हरते सर्वरोगांश्च तस्मात् प्रोक्ता हरीतकी॥
अर्थात् श्री हर के घर में उत्पन्न होने से,
स्वभाव से हरित वर्ण की होने से तथा सब रोगों का नाश करने में समर्थ होने से इसे हरीतकी कहा जाता है ।
वानस्पतिक परिचय-
यह एक ऊँचा वृक्ष होता है एवं मूलतः निचले हिमालय क्षेत्र में रावी तट से लेकर पूर्व बंगाल-आसाम तक पाँच हजार फीट की ऊँचाई पर पाया जाता है । यह 50 से 60 फीट ऊँचा वृक्ष है । इसकी छाल गहरे भूरे रंग की होती है, पत्ते आकार में वासा के पत्र के समान 7 से 20 सेण्टीमीटर लम्बे, डेढ़ इंच चौड़े होते हैं । फूल छोटे, पीताभ श्वेत लंबी मंजरियों में होते हैं । फल एक से तीन इंच लंबे, अण्डाकार होते हैं, जिसके पृष्ठ भाग पर पाँच रेखाएँ होती हैं । कच्चे फल हरे तथा पकने पर पीले धूमिल होते हैं । बीज प्रत्येक फल में एक होता है । अप्रैल-मई में नए पल्लव आते हैं । फल शीतकाल में लगते हैं । पके फलों का संग्रह जनवरी से अप्रैल के मध्य किया जाता है ।
हरड़ बाजार में दो प्रकार की पायी जाती है-बड़ी और छोटी । बड़ी में पत्थर के समान सख्त गुठली होती है, छोटी में कोई गुठली नहीं होती । वे फल जो पेड़ से गुठली पैदा होने से पहले ही गिर पड़ते हैं या तोड़कर सुखा लिया जाते हैं । उन्हें छोटी हरड़ कहते हैं । आयुर्वेद के जानकार छोटी हरड़ का उपयोग अधिक निरापद मानते हैं, क्योंकि आँतों पर उनका प्रभाव सौम्य होता है, तीव्र नहीं । इसके अतिरिक्त वनस्पति शास्त्रियों के अनुसार हरड़ के 3 भेद और किए जा सकते हैं । पक्व फल या बड़ी हरड़, अर्धपक्व फल पीली हरड़ (इसका गूदा काफी मोटा स्वाद में कसैला होता है ।) अपक्व फल जिसे ऊपर छोटी हरड़ नाम से बताया गया है । इसका वर्ण भूरा-काला तथा आकार में यह छोटी होती है । यह गंधहीन व स्वाद में तीखी होती है । फल के स्वरूप, प्रयोग एवं उत्पत्ति स्थान के आधार पर भी हरड़ को कई वर्ग भेदों में बाँटा गया है पर छोटी स्याह, पीली जर्द, बड़ी काबुली ये 3 ही सर्व प्रचलित हैं ।
शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
औषधि प्रयोग हेतु फल ही प्रयुक्त होते हैं एवं उनमें भी डेढ़ तोले से अधिक भार वाली भरी हुई छिद्र रहित छोटी गुठली व बड़े खोल वाली हरड़ उत्तम मानी जाती है । भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार जो हरड़ जल में डूब जाए वह उत्तम है ।
गुण, कर्म संबंधी मत-
चरक संहिता के अनुसार हरड़ त्रिदोष हर व अनुलोमक है यह संग्रहणी शूल, अतिसार (डायरिया) बवासीर तथा गुल्म का नाश करती है एवं पाचन अग्निदीपन में सहायक है ।
श्री खगेन्द्र नाथ वसु के अनुसार हरड़ के गुण-कर्मों के अनुसार विभिन्न भेद हैं । किसी हरड़ को खाने, सूँघने, छूने अथवा देखने मात्र से तीव्र रेचन क्रिया होने लगती है । हिमाचल व तराई में उत्पन्न होने वाली चेतकी नामक हरड़ इतनी तीव्र है कि इसकी छाया में बैठने मात्र से दस्त होने लगते हैं । यह शास्रोक्त उक्ति कहाँ तक सत्य है, इसकी परीक्षा तो शुद्ध चेतकी हरड़ प्राप्त होने पर ही की जा सकता है, परन्तु वृहद् आँत्र संस्थान पर इसके प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता ।
भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार हरड़ बवासीर, सभी प्रकार के उदर रोगों, कृमियों, संग्रहणी, विबंध, गुल्म आदि रोगों में लाभ पहुँचाती है व सात्मीकरण की स्थिति लाती है । वैद्यराज चक्रदत्त के अनुसार आँतों की नियमित सफाई हेतु हरड़ों का नियमित प्रयोग किया जाना चाहिए । हर ऋतु में इसे अलग-अलग अनुपान से लेने का विधान है । नित्य प्रातः नियमित रूप से हरड़ लेते रहने से बुढ़ापा कभी नहीं आता, शरीर थकता नहीं तथा स्फूर्ति बनी रहती है, ऐसा शास्रों का मत है ।
श्री नादकर्णी के अनुरसा हरड़ एक निरापद, सौम्य विरेचक औषधि है । साथ ही यह ग्राही भी है अर्थात् मल निष्कासन को यह सुव्यवस्थित करती है । अंदर के रसों की अनावश्यक हानि नहीं होने देती, ये दोनों (रेचक व ग्राही) प्रभाव परस्पर विरोधी हैं, फिर भी एक औषधि में इनकापाया जाना व शरीर स्थिति के अनुसार उस प्रभाव का ही फलित होना अपने आप में इसकी एक विलक्षणता है । इसे इसी कारण आल्सरेटिव (रसायन) भी मानते हैं । कच्चे फल पके फलों की अपेक्षा अधिक रेचक होते हैं । इससे पित्त कम होता है, आमाशय व्यवस्थित तथा बवासीर के मस्से उभरना तथा शिराओं का फूलना बंद हो जाता है ।
श्री नादकर्णी के अनुसार लंबे समय से चली आ रही पेचिश एवं दस्त आदि में यह बहुत लाभकारी है । वृहद् आंत्र को संकुचित कर रुके मल को हरड़ निकालती है एवं ग्राही होने के कारण रस स्रावों को रोक देती है, जिससे रोगी को आराम मिलता है । महत्त्वपूर्ण रस द्रव्यों-इलेक्ट्रोलाइट्स की हानि नहीं होती ।
कृमि सभी प्रकार के हरीतकी के दुश्मन हैं । उन्हें समूल नष्ट करने में, वायु निष्कासित करने तथा उदर शूल में भी यह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । कर्नल चौपड़ा कहते हैं कि हरड़ कषाय प्रधान है, विरेचक तथा बलवर्धक है । डॉ. घोष की 'ड्रग्स ऑफ हिन्दुस्तान' के अनुसार यह आँतों की जीर्ण व्याधियों में विशेष लाभकारी है । पाश्चात्य जगत में अभी तक इसे पेचिश आदि में ही लाभकारी माना जाता था । पर अब डॉ. ए.प्री जैसे वैज्ञानिकों ने अपनी शोध द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि यह अनियंत्रित विरेचन क्रिया में भी लाभकारी है तथा आँतों को सुव्यवस्थित करने में सहायता करती है ।
होम्योपैथी में भी बवासीर, कब्ज, पेचिश आदि के लिए हरड़ के मदर टिंक्चर का प्रयोग किया जाता है । यूनानी चिकित्सा पद्धति में 'स्लैल स्याह' नाम से छोटी हरड़ प्रयुक्त होती है । हकीम इसे आमाशय व आंतों को बल देने वाली संग्रह मानते हैं । अतिसार बंद करने के लिए इसे घी में भूनकर चूर्ण बनाकर खिलाते हैं ।
रासायनिक संगठन-
हरड़ में ग्राही (एस्टि्रन्जेन्ट) पदार्थ हैं, टैनिक अम्ल (बीस से चालीस प्रतिशत) गैलिक अम्ल, चेबूलीनिक अम्ल और म्यूसीलेज । रेजक पदार्थ हैं एन्थ्राक्वीनिन जाति के ग्लाइको साइड्स । इनमें से एक की रासायनिक संरचना सनाय के ग्लाइको साइड्स सिनोसाइड 'ए' से मिलती जुलती है । इसके अलावा हरड़ में दस प्रतिशत जल, 13.9 से 16.4 प्रतिशत नॉन टैनिन्स और शेष अघुलनशील पदार्थ होते हैं । वेल्थ ऑफ इण्डिया के वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लूकोज, सार्बिटाल, फ्रूक्टोस, सुकोस, माल्टोस एवं अरेबिनोज हरड़ के प्रमुख कार्बोहाइड्रेट हैं । 18 प्रकार के मुक्तावस्था में अमीनो अम्ल पाए जाते हैं । फास्फोरिक तथा सक्सीनिक अम्ल भी उसमें होते हैं । फल जैसे पकता चला जाता है, उसका टैनिक एसिड घटता एवं अम्लता बढ़ती है । बीज मज्जा में एक तीव्र तेल होता है ।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
हरड़ में पाए गए विभिन्न ग्राही पदार्थ प्रोटीन समुदाय के परस्पर संबद्ध कर देते हैं । डॉ. आर. घोष ने अपने 'मटेरिया मेडिका' में लिखते हैं कि टैनिक एसिड श्लेष्मा झिल्लियों परश्लेष्मा और अल्व्यूमन को कोएगुलेट करके उसकी एक परत वहाँ बना देते हैं, जिससे उस कोमल भाग की रक्षा होती है । यह अम्ल आँतों को संकुचित करता है तथा रक्तस्राव को कम कर देता है । अतिसार में यह रसस्राव ही अधिक मात्रा में निकलकर रोगी को कमजोर कर देता है ।
टैनिक अम्ल से चीस्ट और अन्य जीवाणु भी प्रेसिपिटेट हो जाते हैं । जीवाणुनाशी प्रभाव बाह्य रोगाणुओं को नष्ट करता व दुर्गंध को समाप्त करता है । इस प्रभाव के कारण ही हरड़ के एनिमा से (क्वाथ या स्वरस) अल्सरेटिव कोलाइटिव कोलाइटिस जैसे असाध्य रोग भी शांत होते देखे गए हैं । पेपेक्रीन के समान शूल निवारण स्पास्मोलिटिक क्षमता भी हरड़ में पायी गई है ।
हरड़ का मुख्य रेचक पदार्थ एन्थाक्वीनोन अपना प्रभाव बड़ी आँत पर ही दिखाता है । सेवन करने के 6 घंटे बाद ही इसका प्रभाव शुरु होता है । पुराने कब्ज वाली जर् आँतों को बिना कोई हानि पहुँचाए यह तुरंत लाभ पहुँचाता है ।
हरड़ वैसे वात, पित्त, कफ तीनों का ही शमन करती है पर मूलतः इसे वात शामक माना गया है । इसी कारण इसका प्रभाव समग्र संस्थान पर पड़ता है । दुर्बल नाड़ियों को यह समर्थ बनाती है तथा इन्द्रियों को सामर्थ्यवान् । शोथ निवारण में भी इसकी प्रमुख भूमिका होती है, चाहे वह कोपीय हो अथवा अन्तर्कोपीय ।
ग्राह्य अंग-
फल ही प्रयोग में आता है । उत्तम फलों को चैत्र-वैशाख में ग्रहण कर सुखा लिया जाता है तथा अनाद्र-शीतल स्थान में बंद कर रख दिया जाता है ।
कालावधि-
1 से 3 वर्ष तक इन्हें प्रयुक्त किया जा सकता है ।
मात्रा-
हरड़ का चूर्ण 3 से 5 ग्राम प्रत्येक बार । आवश्यकतानुसार इसे 2 या 3 बार लिया जा सकता है । फल का बाहरी खोल वाला अंश अधिक उपयोगी माना जाता है ।
निर्धारणानुसार प्रयोग-
हरड़ को वैसे रसायन, नाड़ीवर्धक, पाचक कई प्रकार से प्रयुक्त किया जा सकता है पर वृहद् आँत्र पर सर्वाधिक प्रभाव होने से वहीं के रोगों में इसे विशेषतया उपयोग में लाते हैं । विवंध (कब्ज) में पीसकर चूर्ण रूप बनाकर या घी सेंकी हुई हरड़ डेढ़ से तीन ग्राम मात्रा में मधु अथवा सैंधव नमक के साथ दी जा सकती है । अतिसार में हरड़ को उबालकर देते हैं । संग्रहणी में हरड़ चूर्ण को गरम जल के साथ भी दे सकते हैं ।
बवासीर में अथवा खूनी पेचिश में चरक के अनुसार हरड़ का चूर्ण व गुड़ दोनों गोमूत्र मिलाकर रात्रि भर रखकर प्रातः पिलाना चाहिए । इसके अलावा इस रोग में हरड़ चूर्ण को दही या मट्ठे के साथ भी दे सकते हैं । अर्श की सूजन उतारने तथा वेदना कम करने के लिए स्थान विशेष पर हरड़ को जल में पीसकर लगाते हैं । रक्त स्राव भी इससे रुकता है व मस्से भी सूखते हैं ।
कामला, लीवर, स्प्लीन बढ़ने तथा कृमि रोगों में 3 से 6 ग्राम चूर्ण प्रातः सायं देने से 2 सप्ताह में आराम हो जाता है । अग्निमंदता में चबाने पर तथा त्रिदोष विकार जन्य वृहद् आंत्र के जीर्ण रोगों में भूनकर सेवन किए जाने पर तुरंत लाभ दिखाती है ।
अन्य उपयोग-
सेंधा नमक के साथ कफज, शक्कर के साथ पित्तज तथा घी के बातज रोगों में यह लाभ पहुँचाती है । व्रणों में लेप के रूप में, मुँह के छालों में क्वाथ से कुल्ला करके, मस्तिष्क दुर्बलता में चूर्ण रूप में, रक्त विकार शोथ में उबालकर, श्वांस रोग में चूर्ण, जीर्ण ज्वरों में चूर्ण रूप में इसका प्रयोग होता है । रसायन के रूप में इसका प्रयोग डॉ. प्रियव्रत शर्मा के अनुसार विभिन्न अनुपानों के साथ दिया जाता है ।
जीर्णकाया, अवसाद ग्रस्त मनःस्थिति, लंबे उपवास में, पित्ताधिक्य वाले तथा गर्भवती स्रियों के लिए इए औषधि का निषेध है ।
Cultivation and uses
This tree yields small, ribbed and nut-like fruits which are picked when still green and then pickled, boiled with a little added sugar in their own syrup or used in preserves or concoctions. The seed of the fruit, which has an elliptical shape, is an abrasive seed enveloped by a fleshy and firm pulp. It is regarded as a universal panacea in the Ayurvedic Medicine and in the Traditional Tibetan medicine. It is reputed to cure blindness and it is believed to inhibit the growth of malignant tumors.
In Urdu and Hindi it is called Harad, Haritaki, or Harada, respectively 'Inknut'. In Sri Lanka it is called Aralu. In Marathi it is called as 'Hirada', in Kannada it is called 'Alalekaayi' and in Tamil it is called 'Kadukkai'. In Bengali it is called horitoky. In Assamese it is called Hilikha. In Telugu it is called 'Karakkaya'. In the United States it is found in some Indian stores; it is known as 'Harde Whole'.
The dry nut's peel is used to cure cold-related nagging coughs. The bark/peel of the nut is placed in the cheek. Although the material does not dissolve, the resulting saliva, bitter in taste, is believed to have medicinal qualities to cure cold related coughs. Its fruit has digestive, anti-inflammatory, anti-helmenthic, cardio-tonic, aphrodisiac and restorative properties and is additionally beneficial in flatulence, constipation, piles, cough and colds.
T. chebula contains terflavin B, a type of tannin while chebulinic acid is found in the fruits.
Botany
Medium to large deciduous tree up to 30 m. Leaves are elliptic-oblong, acute tip, chordate at the base, margins entire, glabrous above with a yellowish pubescence below. Flowers monoecious, dull white to yellow, strong unpleasant odour, borne in terminal spikes or short pinnacles. Fruits glabrous, ellipsoid to ovoid drupes, yellow to orange brown in color, single angled stone. Found in deciduous forests of Indian subcontinent, dry slopes up to 900 meters in elevation.
Part used
Fruit; seven types are recognized (i.e. vijaya, rohini, putana, amrita, abhaya, jivanti and chetaki), based on the region the fruit is harvested, as well as the colour and shape of the fruit. Generally speaking, the vijaya variety is preferred, which is traditionally grown in the Vindhya mountain range of central India, and has a roundish as opposed to a more angular shape.
Constituents
Researchers have isolated a number of glycosides from Haritki, including the triterpenes arjunglucoside I, arjungenin, and the chebulosides I and II. Other constituents include a coumarin conjugated with gallic acids called chebulin, as well as other phenolic compounds including ellagic acid, 2,4-chebulyl-?-D-glucopyranose, chebulinic acid, gallic acid, ethyl gallate, punicalagin, terflavin A, terchebin, luteolin, and tannic acid.
Medicinal Uses
Ayurveda
Energetics
- Rasa (taste): All but salty, mainly astringent, bitter, hot, sweet
- Virya (energy): Heating
- Vipaka (post-digestive effect): sweet
- Guna (quality): light, dry
- Dosha: Vat Pitta Kapha
- Dhatu: All tissues
- Srotas: digestive, excretory, nervous, respiratory, female reproductive
Action
Haritaki is a rejuvenative, laxative (unripe), astringent (ripe), anthelmintic, nervine, expectorant, tonic, carminative, and appetite stimulant. It is used in people who have leprosy (including skin disorders), anemia, narcosis, piles, chronic, intermittent fever, heart disease, diarrhea, anorexia, cough and excessive secretion of mucus, and a range of other complaints and symptoms. According to the Bhavaprakasha, Haritaki was derived from a drop of nectar from Indra’s cup. Haritaki is use to mitigate Vata and eliminate ama (toxins), indicated by constipation, a thick grayish tongue coating, abdominal pain and distension, foul feces and breath, flatulence, weakness, and a slow pulse. The fresh fruit is dipana and the powdered dried fruit made into a paste and taken with jaggery is mala-shodhana, removing impurities and wastes from the body. Haritki is an effective purgative when taken as a powder, but when the whole dried fruit is boiled the resulting decoction is grahi, useful in the treatment of diarrhea and dysentery. The fresh or reconstituted fruit taken before meals stimulates digestion, whereas if taken with meals it increases intelligence, nourishes the senses and purifies the digestive and genitourinary tract. Taken after meals Haritaki treats diseases caused by the aggravation of Vayu, Pitta and Kapha as a result of unwholesome food and drinks. Haritaki is a rasayana to Vata, increasing awareness, and has a nourishing, restorative effect on the central nervous system. Haritki improves digestion, promotes the absorption of nutrients, and regulates colon function.
Contraindications
Pregnancy due to its laxative and descending nature, dehydration, severe exhaustion, emaciation, pitta if taken in excess.